05 January, 2024

कुरुश्रेष्ठ

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अनंत सा प्रतीत होता विध्वंसक संग्राम था

एक ओर अभिमान, दूजी ओर धर्मधुरा थामे घनश्याम था

रण के हर कोने में कई मार्मिक दृश्य थे

कहीं भाई-भाई, कहीं गुरु-शिष्य युद्ध के चित्र थे

ऐसा ही एक क्षण लिए दसवा दिवस भी खड़ा था

जहाँ बाण ताने धनञ्जय पितामह समक्ष अड़ा था

अद्भुत दुर्गम वह दृश्य, जब पार्थ के हाथ संकोच से बंधे थे

और सामने भीष्म, शास्त्र त्याग कर खड़े थे

रथ, नियति, धर्म, और काल की डोरे, स्वयं नाथ के हाथ थी

परन्तु करुणा और शौर्य की डोरे, पार्थ के हृदय में साथ-साथ थी

 

अर्जुन झिझकते हैं, हिचकिचाते हैं

थोड़ा अश्र भर सुकबुकाते हैं

सोचते हैं किस प्रकार उस छाती पर बाण चलाये

जिसके बल पर समस्त संताप क्षीण हो जाए

उन हाथो का कैसे लहू बहाएं

जिन्होंने असंख्य स्नेह लेप लगाए

जिन उंगलियों को पकड़ जीवन-धुरा से अवगत हुए

उनसे ढाल कैसे छुड़ाएं

जिन नेत्रों से स्वयं की छवि जानी

उन्हें कैसे सदा के लिए मूँद कराएं

 

गंगापुत्र गुहरते हैं, हे कुल्श्रेठ धर्म-पलायन महाबाहो

इन वृद्ध भुजाओं को अब तुम विश्राम दो

अब अंत समय में पुत्र अर्जुन

तुम मुझे मुक्तिदान दो

 

मोह बंधनो को भेदो और मुझे मोक्ष के प्रतिकार दो

काट दो बेड़ियाँ स्नेह की और धर्म के मुझे आघात दो

 

वो धर्म नहीं जो मूढ़ व्यक्तिगत प्रतिज्ञा का निर्वाह करे

वो धर्म नहीं जो कुल-परम्पराओं के आधीन चले

वो धर्म नहीं तो रीती नीति आदेश कर्त्तव्य पलायन करे

वो धर्म नहीं जो बेड़ियों की तरह जीवन को बांधे रखे

धर्म वह जो मुक्ति दे

जो कुल, समाज और सृष्टि का सृजन और उत्थान में भागी बने

जो समय, समाज और न्याय को दिशा और गति दे

यदि धर्म ऐसा हो, तो वह धर्म नहीं

केवल मूढ़ मान्यता है, अपराध है

यही विनाश का कारण है, दुष्कर्म की नीव है,

विध्वंस का आधार है

 

कर्म के बंधनो से मुक्ति हेतु, मैंने कर्म का ही त्याग करा

पिता के सुख की कल्पना हेतु, मैंने राष्ट्र का विनाश करा

भविष्य को बिना  जाने, मैंने भविष्य का दासत्व ग्रहण करा

मातृभूमि की शक्ति बन, मैंने मातृभूमि को शक्तिहीन करा

जिन हाथों से धर्म संजोना था, वही आज अधर्म का आधार हैं

जिन भुजाओं से राष्ट्रभार उठाना था, वही आज राष्ट्र का काल हैं

इन अधर्मी भुजाओं को अब तुम विश्राम दो

अब अंत समय में पुत्र अर्जुन

तुम मुझे मुक्तिदान दो

 

मेरे वृद्ध नेत्र जो आज भी, लक्ष्यभेद से चूकते हैं

ये करुण नेत्र जो रणभूमि देख, रोज़ लहू-अश्र झिड़कते हैं

ये व्यर्थ नेत्र, जो वृकोधर को खोज पाए

ये दृष्टिहीन नेत्र, जो लाक्षागृह पर विराम लगा पाए

परन्तु इन नेत्रों का सबसे बड़ा पाप तुम्हे भलीभांति ज्ञात है

जो सम्रगिनी पुत्री कुलवधू यज्ञसेनी

के वस्त्र-हरण को चुपचाप देखते रह गए

मन विचलित था, पर भुजाएं शांत थी

इन व्यर्थ भुजाओं को अब तुम विश्राम दो

अब अंत समय में पुत्र अर्जुन

तुम मुझे मुक्तिदान दो

 

कुल का रक्षण जाने कब पापों का भार बन गया

मैं कुल की शक्ति था, जाने कब अधर्म की ढाल बन गया

युवावस्था में पिता को दिया वचन, राष्ट्रहित जान पड़ता था

आज चारों ओर संग्राम देख, जीवन व्यर्थ जान पड़ता है

जिन पुत्र-पौत्र-प्रपौत्र को आशीर्वाद देने थे

उन वीर युवाओं से घावों का रिश्ता है

जिन सीशो पर हाथ रख सौभाग्य प्राप्त करना था

उनके शवों के चरणों को भी प्रणाम किया है

जिस दिन वीर सुभद्रे पर वाण चलाये

उसी दिन उसके तन के घावों ने मेरी आत्मा ध्वस्त कर दी

जब-जब कोई भारतवर्ष का सैनिक गिरा

उसी क्षण गंगापुत्र भीष्म की हार हो गयी

अन्तः विजय धर्म की है, जो तुम्हारे पक्ष के साथ है

वह तुम्हारे जीवन के सारथि हैं वो, यह भी मुझे ज्ञात है

तो नियति की योजनाओं में बाधा बनते,

इस हारे हुए वृद्ध जीवन को विराम दो

अब अंत समय में पुत्र अर्जुन

तुम मुझे मुक्तिदान दो

 

पावन माता ने शाश्व में ही मुझे

मुक्तिमार्ग का अवसर दिया था

कदाचित वही उचित होता, तो यह क्षण आता

परन्तु यदि मैं बाल्यावस्था में ही मुक्ति पाता

तो इस मनोरम दृश्य से वंचित रह जाता

तुम्हे तीर साधे अपने समक्ष पाता

यशोधानंदन के समक्ष मृत्यु-प्रसाद पाता

तुम्हारा मधुर बालपन देख पाता

तुम्हारे दुर्भाग्य का दुर्भागी बन पाता

वासुदेव से उसकी प्रतिज्ञा तुड़वाता

गुरु भार्गव को द्वन्द में हराता

तुम्हारा ये अनंतकालीन शौर्य देख पाता

 

देवी अम्बा का भी अब अंतिम ऋण उतार कर

अब मेरे इस अवृद्ध प्रपंच को अविराम दो

अब अंत समय में पुत्र अर्जुन

तुम मुझे मुक्तिदान दो

 

विशाल गुप्ता

दिसंबर २४, २०२३