आज अर्सों बाद, तारों को देखने का मौका मिला
बरसों जिस मुकुट ने सर को झुकाया, आज वो जा भूमि पे गिरा
जिन हाथों को पकड़ चलना सिखाया, उन्ही से ये आशीर्वाद पाया है
कठिनाइयों से जी थी ज़िंदगी, अब अंतिम शैय्या का विश्राम पाया है
याद आता है गुरु वशिष्ठ का आदेश,
के कर्म व ज्ञान एक ही हंस के दो पंख हैं
याद है जब कहा बृहस्पति देव ने,
के या तुम कार्य का अंत करो, या कार्य तुम्हारा कर देगा
परंतु जो वाणी सीने में तीरों की भाँति बसती है
वो ऋषि भार्गव का वचन और मेरा जीवन दर्पण है
कहा उन्होने कि पिता कि आज्ञा ही सर्वोपरि है
और वही आनंद की सीधी है
और माता का अधिकार पिता से सहस्त्र गुना है
तो जब भी मान विचलित हुआ, माता की ओर चला आया
बहती नदी सी निर्मल मेरी माता
ने हर कदम विचलित मन को समझाया
सुन्हरे ताड़ वृक्ष की एक पताका
कुछ दूर भूमि पर दिखती है
मिट जाए मेरी तरह वो मिट्टी में
उससे पहले एक बार आख़िरी प्रणाम भरता हूँ
कई युद्ध देखे इस ध्वज तले
शाल्व, काशी को किया पराजित
बस एक बार यह ध्वज गिरा
जब विराट में देखा, काल गांदिवधारी
जब मुड़ देखता हूँ अतीत को
प्रतिज्ञाओं की चोटियाँ नज़र आती है
पहली, के राजसिंघासन पिता महाराज और माता सत्यावती के पुत्र को सौंपूंगा
दूसरी, आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा और वंषहीन मरूँगा
तीसरा, जीवनभर कुरुवंश के सिंघासन की सेवा व रक्षा करूँगा
चौथा, जब तक हस्तिनापुर को सुरक्षित न देख लूँ, प्राण न त्यागूंगा
पाँचवा, पाँच पांडव पुत्रों का वध कर दूँगा
छ, श्री कृष्ण से युद्ध भूमि में शश्त्र उठवाउंगा
एक वचन मैने प्रभु का तोड़ा,
एक, प्रभु ने मेरा
पहली बार जब देखा तो मेरे हाथ स्वयं प्रणाम में उठ गये
जब आख़िरी बार मिले तो उनका प्रणाम स्वीकारा
अब जब साँसें रोकने का समय आया, तो बीता जीवन याद आता है
पिता, माता, गुरु, मित्र, अनुज व छोटों के पास जाना है
पर स्वर्ग में आँखें, एक ही युवा को ढूँढेंगी
अपनी छवि देखी जिस मुस्कान में, उससे मिलने आँखें तरसेंगी
युद्ध लड़ा था गुरु भार्गव से भी
वो दिन भी बड़ा याद आता है
पर अभिमन्यु का तेज देख
उसका पितामह होने का गौरव आता है
उसने वाणो से मेरे चरण छुए, और वाणो से आशीर्वाद लिया
न उसके हाथ मेरे प्राण लेने उठ पाए, न मेरे हाथ उसके
न रोक पाया वह मेरे रथ को, न बढ़ पाया मैं उसके वाणो से
जब देखा था उसका शीश निर्जीव, तभी गिरा था एक अकेला आँसू नयन से
अंतिम ऋण अंबा का चुकाकर, जीवन ने विश्राम दिया
जो थी शैय्या एक योद्धा के योग्य, उसका ही आराम दिया
उस एक शैय्या ने, जीवन की कहानी बिन कहे बता दी
अब त्यागना है मातृभूमि को, जिसने आजीवन छाया दी
जाते-जाते, अंतिम एक आस बाकी है
जिस जननी ने दिया जीवन, उसकी प्यास बाकी है
अंतिम बार, उसकी निर्मलता का स्पर्श करना है
अब मृत्यु के पहले, एक अंतिम बार फिर जीना है
फिर मूंद लूँगा नेत्र,
और रह जाएगा ये शरीर इस शैय्या पर
फिर मिलूँगा उस ईश्वर से,
आख़िरी किया था जिसका दर्शन
-
विशाल गुप्ता
मार्च 10, 2014