27 April, 2025

कश्मीर, शाम, और काहवा

बड़े दिनों के बाद, आज ढलते सूरज से चंद बातें करने का मौका मिला है 

"किधर थे इतने दिन?" मन की चादर ओढ़े वक़्त सवाल पूछता है 

"क्या लिखना छोड़ दिया था, के सोचना?"

वो जवाब नहीं चाहता, बस मज़ाक उड़ाना जानता है 

ढलते सूरज से भी भला किसीको जवाब मिले हैं कभी?

वो तो बस पूछता रहता है 

शायद कभी-कभी सही सवाल भी कोई जवाब ही होता है 


पीछे से एक आवाज़ आती है 

"अरी चाय बना दीजो ज़रा," अम्मा गुहार लगाती है 

अब अम्मा को क्या पता, ढलते सूरज से हमारा कितना पुराना नाता है 

मैं जवाब देती हूँ, "अरि ठहरो, थोड़ा शाम-भर तो इंतज़ार करि लो 

बड़ी दिनों बाद फुर्सत में हूँ, ज़रा सूरज को ढलने तो दो"


आधा आसमां जाती किरणों से रोशन है 

बादलों के पीछे से सूरज मानो लपक-कर

मुझे देख रहा है, ढलते हुए 

दूर कहीं से आज़ान की आवाज़ आ रही है 

हवा भी कुछ हौले से ही चल रही है 

कलियाँ भी सूरज को ढलता देख, नींद लेने की फिराक में हैं 

आसमां में भी अँधेरा, बढ़ने की ही कगार पे है 

सूरज से बातें नहीं हो रही, सिर्फ हलके मैं मुस्कुरा रही हूँ 

हर्फ़, हिज्र हंजुओं के मतलब के बारे में सोचती हूँ 

सोचती हूँ ये लफ्ज़ किसी कविता में पिरोये हुए सुन्दर दिखेंगे 

बहुत दिनों से कुछ लिखा  भी तो नहीं है 

जो लिखा, वो ज़िम्मेदारियों के नाम कर दिया 

अमा कंधों पर ज़िम्मेदारियों का बस्ता भी कुछ भारी-सा ही हो गया है 

अमा ढलता सूरज भी तो अब बल्ब की बत्ती सा हो गया है 


फिर पीछे आवाज़ आती है, "ये अटैची उतारियो ज़रा"

अम्मा को भी चैन नहीं है 

"अम्मा तनिक देर भर रुक तो जाओ भला

सूरज ढलने को है, इसे भी चैन से ढल जाने दो ज़रा"


आसमां में पंछी उड़ते है 

शायद सोच रहे हैं की ढलते सूरज का पीछा करें?

या फिर अँधेरे को ही अपना लें?

क्या है सही जवाब? किसे पता? क्या फर्क पड़ता है?

सूरज कोई सा भी हो, डूब ही जाएगा 

अँधेरा भी कौन सा हमेशा रह जाएगा 


अम्मा कहती है बहुत देर हो गयी, अब वापिस आजा 

शायद वक़्त आ गया है 

सूरज भी ढल गया है 

मैं अपने सवालों के साथ ही वापिस घर को चल देती हूँ 

भला ढलता सूरज भी कभी किसीको कोई जवाब बताता है?


विशाल गुप्ता 

२० मार्च, २०२५