23 December, 2015
20 November, 2015
सुना है यहाँ लोग कुछ अच्छे हैं
रूठीं मायूस कुछ यादें, कुछ अनकही सी सुर्मयि बातें,
कुछ आँखें जो नम हैं, कुछ जज़्बात थोड़े कम हैं,
याद दिलाते हैं कुछ अल्फ़ाज़, जिन्हे छोड़ आगे आ चले हम
ढूँढने फिर से, उन यादों की दुनिया, जहाँ थी मेरी खुशियाँ और गम
जाते जाते वो पल अपना एहसास छोड़ गया
ज़ोर से थामा उसने मुझे, और फिर झकझोड़ दिया
उसकी खुश्बू के सहारे अब उसकी ओर बढ़ता हूँ
फिर उसे एक दफ़ा थामने, उसकी तरफ चलता हूँ
पूछा था उससे की किस तरह मुझे छोड़ पायेगा
जो प्यार उसने दिया, वो फिर कौन दे पाएगा?
"तुम्हारे जाने के बाद हमसे प्यार कौन करेगा?" आख़िरी लफ्ज़ थे
उस दिन उसके पास कोई जवाब न था, सिर्फ़ बाहों का सहारा था
बीते हुए कल में आने वाले कल के लिए वो आज में जीने कहता था
मैं रहता था जज़्बातों बिन वो मेरे दिल में रहता था
अब जीता हूँ आज में पर उसके बिन जीवन फीका है
तो अब भी रहता हूँ कल की याद में जहाँ उससे रिश्ता मीठा है
भूला सा यादों की ख्वाहिश में, भटके प्रेमी से तुलना होती है
आख़िर प्रेम के लिए क्या, एक सही लम्हा ही तो ज़रूरी है
एक याद, एक मुस्कान, थोड़ी-सी चमक आखों की
एक हँसी, एक घाव, एक बातों की रात
वो कहते हैं पागल हूँ मैं, मैने कल को नही देखा है
पर सच पूछो तो आज तक, मैने तो सिर्फ़ कल को ही देखा है
नन्ही अटखेलियों को, मैने डग-डग चलते देखा है
कल को संवारने के ख्वाबों में, आज को जलते देखा है
पुरानी वास्तविकताओं को अब मैं डोर छोड़ आया हूँ
अब कल्पनायों का जीवन संगीन सा लगता है
दूर कुछ छूटी टिमटिमाती रोशनियाँ नज़र आती है
सोचता हूँ अब वो दूर ही अच्छी दिखती हैं
हड़बड़-गड़बड़ के अतीत में, जल्दी जीने की होड़ थी
मौत को दूर खड़ा किए, ज़िंदगी एक पागल दौड़ थी
कभी सोचा ही नही की जीवन धीमा और मौत तेज़ आनी चाहिए
बीते कल में जीवन तो तेज़ बीतता था, और मौत धीमे से रोज़ आती थी
तो चलते चलते पहुँचा उन गलियों में, जहाँ उसकी खिलखिलाहट आज भी गूँजती है
तोड़ा गरम किया इन गलियों को, तो कोहरा आज भी उठता है
कुछ सुनी-सुनी सी, देखी सी हैं ये, ऐसा मुझे भी लगता है
सोचता हूँ क्या इन्हे भी मेरा नाम पता होगा?
कभी इन्होने मेरी तस्वीर देख, उसे नाचते देखा होगा?
भूले से मेरे मुख को देख, कोई खैरतिया आकर पूछ जाता है?
"अमा यार, किसे ढूँढते फिरते हो? क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जाओगे?"
मैं मुस्कुरा कर उससे कह देता हूँ, की खुशियों की परच्छाइयाँ ढूंढता फिरता हूँ
क्या उसने देखी है? उससे पूछ पड़ता हूँ. कुछ नाता सा था उनसे, थोड़ी रूठ सी गयी हैं
"खुशियाँ तो शहरो की अमानत है," वो कहता है, "यहाँ तो सिर्फ़ चन्द लोग बस्ते हैं"
मैं हंस के कह देता हूँ, "वही तो बात है ना जनाब, सुना है यहाँ लोग कुछ अच्छे हैं"
विशाल गुप्ता
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Poetess
Oftentimes, I open a blank MS Word document
or would seldom bring out a paper and pen
and stare, for minutes, or hours,
Constantly putting it aside and then opening it again
Be it the quiet of the night or the heat of the day
I answer the call whenever it comes to me
But seldom, it does so happen,
that the thoughts in my mind refuse to take shape
I’m unable to write a single letter
or I keep cancelling what I wrote, in pursuit of better words
But none come, and I wonder
did I lose the art I thought I was born with
My one gift that I neither won nor earned
but was simply bestowed upon my breaths
And that scares me, for a moment though
Because I once the words come and pass through me onto parch’
I realize I was never the writer all along
The words simply passed through me, perhaps in search of an empty soul
that wouldn’t dare to soil them, and would put them to paper pure
The writer was someone else, someone pious and pure
For it wasn’t in me to have such thoughts and words
The poetess was beautiful, unworldly, and immortal
I was but a mere mortal, scum unworthy
The words written were her doing, not mine
And on days when I couldn’t write, she was the one who had failed
Or perhaps chose not to caress me that night
Perhaps my soul wasn’t pure that night
But once she calls, it was impossible to let her be
And the guilt would kill me if I ever did ignore her,
tearing me apart, limb for limb
ripping out my heart, clutching my throat
wrestling me, till I had tears in my eyes and found respite in dreams alone
The Poetess wrote, and I found joy in her victories
And danced with her, for twas the only joy I had ever known
No mere mortal she is, but a Goddess
for she fires up the spirit
she bursts a sad rotting soul into embers of creativity
The mere brush of her hair makes a lethargic man sit up
The ashes of her doing lighten up the eyes of the deadest of people
Who praise, chant, and worship
They wish to cherish the artist, such are the customs of the world today
But in essence, the artist is I, the wielder of a pen for a flickering moment
The source is much greater, larger, grander
And in the afterglow of that spirit my soul lingers, gathering words of praise
Yet, the man receiving the praise was not the one who earned it
To the poetess goes all my glory, and from her comes more
For I will not be a poet, when I’m not writing, I’m one in this moment alone
The moment that cloaks and crafts itself upon me
And absorbs me into its own time and space
into an environment, not unlike one being created by my own words
I let lose, and flow, entering into the heavenly world
The fiery world, the calm, the anger, the sadness, the joy
the screams, the lights, the dark, and the agony
of the moment when I feel a lump in my throat and take my pen
I earn a moment of oneness with her, at-one-ment
I become, the Poetess