23 September, 2012

First Rays Of The Setting Sun


You savor the beauty of the setting Sun
you wait for the Sun to descent
and vanish into the vast horizon
only to wait to it to emerge again

I like to wait for the first rays of the setting Sun
when the Sun begins its journey
when it sojourns its burns and soothes the soul
and turns the sky both dark and bright

The first rays of the setting Sun
tell me that even giants may fall
and only true giants emerge again
from oblivious darkness into light divine

The first rays of the setting Sun
tell me that the journey is beyond life
taking new challenges every day
and new days in every life

Emerging again and again
not because the task is incomplete
but because emerging is the task
as is to lie down again

The first rays of the setting Sun
show how quick the day can turn into night
how soon can the vast sky change its hues
and yet man frets over changes in his journey

For he does not understand
that change is the only constant
that’s what the sky tries to tell him everyday
and will continue so till he does not understand

But he pays no heed
for he is too busy to look at the sky
too afraid to acknowledge
the vastness exists only to aid him to survive

The first rays of the setting Sun
know no bounds of beauty
for them it is a passion and reason to be
not a misjudged reason of forced duty

And they come everyday to paint the sky
paint it before in darkness it dies
Do they come to pay their last rites?
Or do they to say goodnight?

They only come to fulfill their destiny
to create beauty man forgets
They do not care for outcome of their deeds
for they understand consequence is not a result endeavors

For consequences are never in the hands of man
they are only responsible for their actions
and consequence is guided by a higher power
well beyond the control of the mortal

The first rays of the setting Sun ask me
that me another day has passed
have I lived that day in the sunshine
or have I simply waited, for the darkness.

Vishal Gupta
August 24th, 2012

18 September, 2012

तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ


ये कविता मैंने सोच के नहीं लिखी. शायद किसीकी रूह ने मुझसे ये लिखवाई है. मैं केवल माध्यम था. ये सन्देश किसी और ने किसी और के लिए भिजवायें हैं. शायद मेरे लिए, शायद आपके लिए. शायद उसके लिए, जिसका चेहरा ये लिखते वक़्त मेरे ज़हन से नहीं हट रहा था. उम्मीद है मैंने उस रूह की इच्छा का सम्मान करा है. त्रुटी के लिए मैं माफ़ी मांगता हूँ और बिना समय व्यर्थ करे कविता प्रस्तुत करता हूँ.

तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ

तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ
तेरी ज़ुल्फ़ों में उड़ू, तू सुने जो मैं कहूँ
तेरी पायल की छनक पे, ताल बनकर मैं बजूँ
तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ

तेरे पैर जब भी नाचे, झूमे जब ये जग भुला के
तेरी घुंघरू की धुन पर, मैं भी नाचूँ संग तेरे
तेरी पायल पे सजूँ, तेरे क़दमों में रहूँ
तेरी चाल संग मैं चलू, तू रुके तो मैं रुकू
तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ

तेरे हाथ जब थामे कलम, कागज़ पर भी मैं गिरूँ
तेरे शब्दों में अमर होके, स्याही हो तेरी याद बनूँ
अपनी ही यादों को पढ़कर, जब तेरी आँखें भर आयें
तेरी आँखों से आंसूं, मिटाने मैं तेरे दिल में समाऊँ
तेरी उँगलियों से मैं गुजरू, फिर तेरे दिल में समाऊँ
तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ

तेरे होठ जब गुनगुनाएं, खिलखिलाएं मुस्कुराएं
हलकी सी हंसी से जब ये, तेरे चेहरे की रौनक बढायें
उस हंसी में मैं बसूँ, तेरी खुशियों की वजह बनूँ
तेरे होठ जब बात करें, उन बातों में मैं रहूँ
तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ

जब सर्दी की ठंडी हवाएं, तेरे कानों के करीब आयें
बात वो कुछ कह भी जाएँ, दर्द वो कुछ दे भी जाएँ
उन हवाओं में मैं रहूँ, कभी तुझे उनमें बसाऊं
तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ

तेरा दिल भर आके जब, आँखों में अश्क लाये
उन अश्कों में मैं रहूँ, तेरी आँखों से बहूँ
आँखें तू बंद कर लेना, कहीं भूल से गिरूँ
आँखें बंद कर लोगे जब, मेरी ही तस्वीर दिखे
सूनी बाहों को तुम भरना, मैं तेरी बाहों में हूँ
तेरी आँखों पे सजूँ, तेरी बातों में बसूँ

तेरे दिल की धड़कन जब, मुझकों याद कर कभी सतायें
जब तेरे आंसूँ बहें, और मैं उन्हें मिटा पाऊँ
तेरे सिसकते सर को जब मैं, कन्धा देने भी आऊँ
जब बाहें सूनी दिखे, और हाथ खाली रह जाएँ
कह देना इनसे तू, दूर नहीं मैं पास हूँ
तेरी यादों में बसा हूँ, तेरे ज़हन में जिंदा हूँ
तुझको चाहा जीवन भर है, मरने पर भी ये कम है
दिल से पूछो मैं वहीं, धडकनों में ही बसा हूँ
तेरी आँखों पे सजा हूँ, तेरी बातों में बसा हूँ
तेरी पास मैं नहीं तो क्या है
तेरी रूह में जिंदा हूँ

विशाल गुप्ता
अगस्त २०, २०१२